कहते हें क़ि दुनिया सिमट गई ,
मगर सच तो यह है कि किसी अपने से मिलने में वर्षों लग जाते हें।
दिलों के फासले अब बढ़ने लगे हें ,
जब से हम तरक्की की राह में चलने लगे हें।
एक समय था जब हम किसी से कुछ काम रहने पर, या फिर कुछ मसले पर बातचीत करने हेतु मिलने जाते थे। कभी कभी पूरे परिबार को भी साथ लेकर जाते थे। घंटों बातचीत करते, अपने दुःख को बाँट कर घटाते, अपनी खुशियों को साझा करते थे। अपनी समस्याओं पर बिस्तार से चर्चा कर उससे बाहर निकालने का तरीका ढूंढ निकालते थे। चाय के प्याले के ऊपर ढेरों ज्ञान बांटे-बढ़ाये जाते थे। नजर और शरीर की भाब भंगिमा को देख एक दूसरे से रिश्ते मजबूत होते थे ।आँख से आँख मिलाकर झूठ भी तो बोला नहीं जाता। अतः इंसान एक दूसरे को अच्छी तरह जान पहचान लेता था। आमने सामने बैठने पर कौन अच्छा और कौन बुरा, क्या सही और क्या गलत ये साफ हो जाता था । आदमी ये सटीक तय कर लेता था कि कौन सी दोस्ती या संबंध को आगे बढ़ाया जाए या किस से दूर रहा जाए। भरोसे में धोखा जैसी चीज़ कम ही होती थी। सम्बन्ध बहुत कम होते थे मगर प्रगाढ़ होते थे। इस बिषय पर एक छोटी सी कहानी का जिक्र करना उचित होगा।
एक लड़का था। बिद्यालय से आने के उपरांत वह अपने दोस्तों के साथ घूमता रहता था। शाम को घर आकर फेसबुक और वाट्सएप पर ब्यस्त हो जाता था। पढाई के प्रति अबहेलना देख कर उसके पिता प्रदीपजी बोले "बेटा तुम ये जो मटर गस्ती कर रहे हो इस से तुम्हारा भबिष्य मुझे अच्छा नहीं दिख रहा है। हम नौकरी पेशा लोग, ढंग से पढ़ लिख लेंगे तो पेट पालने में आसानी होगी। नहीं तो दो वक्त की रोटी के लिए जिंदगी भर संघर्ष करते रह जाओगे। या तो तुम अभी थोड़ा मेहनत करो या फिर जिंदगी भर संघर्ष और मेहनत करना पड़ेगा। ये जो तुम्हारे दोस्त , जिनके साथ तुम दिन भर गुजारते हो सब एक एक करके अपने रास्ते चले जाएंगे। सब अपनी जिंदगी संभालेंगे, सवारेंगे। कभी जब मुलाकात होगी हाए-हेलो कर देंगे, एक प्याला चाय साझा कर लेंगे, या फिर एक वक्त खाना खिला देंगे। तुम्हारी समस्याओं को सुन कर 'आहा' बोल कर मोटा मोटा प्रवचन दे देंगे, और फिर अपने रास्ते चल पड़ेंगे। और अगर तुमने फिर से मिलने की कोशिश की तो तुम्हे देख कर अपना रास्ता बदल देंगे या फिर वक्त न होने का बहाना कर के तुम्हारे सामने से निकल जायेंगे । कोई तुम्हारे जिंदगी भर काम नहीं आने वाला है। फेसबुक पर बुजदिलों और धोखेबाजों का जमावड़ा है। जो लोग अपना नाम और चेहरे को तुमसे छुपाए फिरते हें वे तुम्हारे क्या किसी की भी दोस्ती के काबिल नहीं। तुम उनसे बातचित करने में वक्त गुजार देते हो। सोच कर बताओ तुम क्या ठीक और क्या गलत कर रहे हो।"
देव ध्यान पूवर्क सुनता रहा और फिर बोला, "पापा पढ़ाई के बारेमें जो आप ने कहा बिलकुल ठीक कहा। मुझे उसपर और ज्यादा ध्यान देना होगा। हमें इस प्रतियोगिता पूर्ण समाज में खुद को किसी काबिल बनाना पड़ेगा ताकि हम अपनी काबिलियत के बूते समाज में अपनी जगह हासिल कर सकें। मगर दोस्तों के बारेमें और फेसबुक के बारे में मैं आप से पूरी तरह सहमत नहीं हूँ। यहाँ मेरे जितने दोस्त है बड़े अच्छे लड़के हैँ , हम सब समान विचारधारा के हैँ। एक दूसरे को बड़ी होशियारी से देख परख कर हमने कदम आगे बढ़ाया है।आप किसी से भी बात कर सकते हें , किसी को भी आजमा सकते हें। वे सब विनम्र और समझदार है।जहाँ तक फेसबुक की बात है आप कुछ ठीक और कुछ गलत हैं । हम फेसबुक ज्ञान आहरण करने हेतु खोलते हैं । देश विदेश के लोगों से दोस्ती कर के पूरी दुनिया के लोगों का कल्चर, जीवन-यापन का ज्ञान सीधा लोगों से प्राप्त करने हेतु मैं फेसबुक का इस्तेमाल करता हूँ। बुरा न माने,आप भी तो फेसबुक का इस्तेमाल करते हैं। माफ़ कीजिये अगर ये कह कर मैंने आप को ठेस पहुँचाया तो।"
इतना कहकर जब देव चुप हो गया तो प्रदीपजी बोले, " बेटा मुझे नाज है की तुमने मेरी बात को ध्यान से सुना और उसपर अपने बिचार शालीनतापुवर्क व्यक्त किया । मैं तुम्हारी कोई बात का बिलकुल बुरा नहीं मानता। क्यों कि तुम उस उम्र में पहुँच चुके हो जहाँ मेरे हिसाब से हम पिता-पुत्र के अलावा अच्छे दोस्त की तरह अपने बिचारों को साझा कर सकते हें। जब हम अच्छे दोस्त है तो फिर तुम कोई भी आपत्ति को क्यों नहीं व्यक्त कर सकते हो? बेटा जहांतक मेरा फेसबुक इस्तेमाल की बात है तो मैं परिबार के प्रति, समाज के प्रति अपने कर्तब्यों का सुचारू ढंग से संपादन के उपरांत बचे हुए वक्त पर करता हूँ। जीबन के प्रति हर ब्यक्ति का एक नजरिया होता है , मेरा भी है। मेरे हिसाब से जिन चीजों की समाज में कमी है और मुझे लगता है की मुझे उसपर रोशनी डालनी चाहिए में उसपर फेसबुक, वॉटसअप और ट्विटर पर लिखता हूँ। जिसे मेरे बात पर यकीन नहीं होता, या मेरे खुलेपन और सब को अपना समझना और बर्ताब करना पसंद नहीं आता, या जो दुनिया भर को शक की नजर से देखते हैं वे मुझसे दूर चले जाते हैं। जो लोग मेरे हिसाब से समाज मैं भेद भाव,नफरत का जहर,या वासना की गंदगी फैलाते हैं उनसे मैं दूर हो जाता हूँ। ऐसा करते हुए एक वक्त ऐसा भी आएगा जब मेरे पास ऊँगली पर गिने जाने योग्य कुछ दोस्त फेसबुक पर होंगे। जिनके जीबन और बिचार पर मुझे नाज होगा। क्यों कि मैं एक परिपक्व इंसान हूँ तो मैं किसी की मीठी बोली मैं आने वाला नहीं हूँ। फेस बुक और व्हाट्सप्प पर अपने विचारों को साझा करता हूँ। यक़ीनन अबतक मुझे वहां कोई दोस्त कहलाने योग्य नहीं मिला है। हाँ यहाँ शहर मैं सिर्फ दो लोग हैं जिनकी दोस्ती पर मेरा भरोसा है, और उनके व्यक्तित्व पर मुझे नाज है। अब तुम बताओ तुम्हारे कितने अच्छे दोस्त है श.हर मैं ?"
" ४८ साल के जिंदगी मैं बस दो ही दोस्त? आप को सिर्फ दो ही ऐसे इंसान मिले जिनकी सोच और विचार आप से मेल खता हो ? आप तो हर रोज काम के सिलसिले मैं कई लोगों से मिलते रहते हो, फिर इतने कम दोस्त क्यों ? हमारे यहीं बिलासपुर मैं ढेरों दोस्त है , कुछ स्कूल की वक्त के दोस्त , कुछ कालेज के , कुछ पुराने मोहल्ले के जहाँ हम पहले रहते थे और फिर कुछ अभी की कालोनी के। क्या गिनती बताऊँ उनकी हम रोज मिलते रहते हैं ।" मुस्कुराके प्रदीपजी बोले, " बड़ा अच्छा लगा ये सुन के की तुम्हारे ढेरों दोस्त है। तुम काफी होशिआर लड़के हो। बड़ी होशियारी से दोस्त चुने होंगे। मगर बेटा मैं जानना चाहता हूँ की कौन तुम्हारे सबसे अच्छा दोस्त है। उसके लिए एक परिक्षा करना चाहता हूँ। क्या तुम साथ देने को तैयार हो ?" तारीफ के सभी काहिल होते हैं। पापा की तारीफ सुन कर देव बोला, " हाँ पापा मेरे सारे दोस्त अच्छे हैं और उकी दोस्ती पर मुझे नाज है। आप किसी का भी परिक्षा ले सकते हो। "
प्रदीपजी धान की एक बड़ी बोरी निकाले और फिर उसे एक इंसान आकर देकर बांध दिए। ऊपर से कुछ लाल रंग लगा कर उसे और एक बोरी मैं डाल दिए। देव से बोले "यह बोरी को साईकल के पीछे रखो और तुम जिसे अपना सबसे अजीज दोस्त मानते हो उसके पास जाओ। उसे कहना कि तुम्हारे हाथ से एक क़त्ल हो गया है। वह तुम्हे बचाले,और तुम्हे कुछ पैसे की सख्त जरुरत है। तुम्हे क्या जबाब मिला मुझे आ कर बताओ।" देव धान के बोरा को साइकिल पर लाद कर निकल पड़ा अपने सबसे अजीज बचपन के दोस्त हरीश के पास। रोनी सूरत करते हुए बोला, " हरीश, मेरे भाई, मुझसे एक बड़ा अनर्थ हो गया है। एक अनजान शख़्स से में उलझ गया और फिर तैश मैं आकर मेरे हाथों उसका क़त्ल हो गया है। अब तुम मेरी कुछ मदद करो, चलो इस लाश को कहीं छुपा देते हें। और फिर मुझे जितना तुमसे बन पड़े कुछ पैसा उधार दो। मामला ठंडा होने के बाद तुम्हे सारा पैसा लौटा दूंगा।" इतना कह कर देव अपने हाथों से अपने चेहरे को ढँक कर रोने लगा और फिर अपने अजीज दोस्त हरीश के जवाब की प्रतिक्षा करने लगा। बहुत सोचने के उपरांत हरीश बोला, " देव, तुम तो जानते हो मेरे पिताजी कितने गुस्से वाले हैँ । उन्हें पता चलेगा मैंने इन हालातों में तुम्हारा साथ दिया है, तो वे मुझे बहुत मारेंगे। तुमको आगे पीछे सोचना चाहिए था, कुछ करने से पहले। ये तो हत्या का मामला है। आज नहीं तो कल उजागर हो जाएगा। पुलिस का डंडा तुम तो खाओगे ही और फिर तुम्हे साथ देने के लिए मुझे भी जेल जाना पड़ेगा। मैं इस जुर्म में तुम्हारे साथ नहीं हूँ यार। जहाँ तक पैसे का सवाल मेरे पास कुछ भी नहीं है। तुम कहीं और देखो। " इतना सुन कर देव बोला, "तुम मेरे सबसे पुराने और सबसे अजीज दोस्त हो। इस बुरे वक्त में मैं अगर तुमसे मदद की उम्मीद न रखूं तो फिर तुम कहो किस के पास जाऊं? जुर्म कहाँ जान बुझ कर किया हूँ ? तुम्हारे पास तो हर वक्त पैसा रहता है। आज मेरे इस संकट की घडी में कुछ नहीं है यह कैसे होसकता है ? कम से कम हमारी दोस्ती का कुछ तो लिहाज करो।" फिर बडी दीनता से हरीश के जवाब का इन्तजार करने लगा। हरीश उसकी दयनीयता का जबाब बड़ी कठोरता से दिया , " अब तुम कहाँ किसी के दोस्त रहे। तुम अब एक हत्यारे हो। हाँ , मेरे पास पैसा है लेकिन तुम्हारी मदद करने का मतलब अपराध में शरीक होने के बराबर माना जा सकता है।हमारी दोस्ती के दिनों को याद करके मैं तुम्हे पुलिस के हवाले नहीं करता हूँ। मैं जनता हूँ अपराध या अपराधी को छुपाना भी एक जुर्म है। मगर इतने साल की दोस्ती के खातिर मैं यह जुर्म करने को तैयार हूँ। लेकिन तुहे एक वादा करना पड़ेगा। तुम कहीं भी, किसी को भी नहीं बताओगे की तुम यहाँ आए थे, और मुझे सब कुछ बताए थे। नहीं तो में अभी थाने में जाकर तुम्हारी करतूत का पर्दाफाश करता हूँ।" अपने अजीज दोस्त का जवाब सुन कर देव दंग रह गया और फिर हाथ जोड़ कर बोला, " में यहाँ फिर कभी नहीं आऊंगा। यहाँ आया था यह भी किसीको बताऊंगा नहीं। तुम प्लीज़ पुलिस की बात मत करो, मुझे बहुत डर लग रहा है।" इसके उपरांत देव अपने एक और दोस्त के पास पहुँच गया। एक के बाद एक उसके सारे दोस्त जब उसे खरी खोटी सुना कर उससे किनारे हो गए, तो थक हारकर देव अपने घर वापस आ गया।
प्रदीपजी पूछे , "बेटा, क्या हुआ ? कितने दोस्त तुम्हारे साथ देने को तैयार हुए ? उन्होंने तुम्हे क्या सलाह दिया ? तुम्हारा चेहरा क्यों लटका हुआ है ? कुछ किसीने बुरा भला कहा क्या ?" सवालों के बौछार के जबाब मैं देव अपना सर झुकाके बोला, " में कितना गलत था पापा, आज पता चला। मैंने आज तक एक भी सच्चा दोस्त नहीं कमाया है। जितने से आजतक मिलता था वे सब सिर्फ जान पहचान के थे । बल्कि यह कहा जा सकता है की में उन्हें पहचानता भी नहीं था। अब सब साफ हो गया है। उन में से कोई एक भी सच्चा दोस्त कहलाने के योग्य नहीं है। मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ अपनी पसंद पर।वे सरे लोग जिन्हे हम अपना दोस्त कहते थे, मुझे अपनी पीठ दिखादिया। मुसीबत की समय कोई साथ देना तो दूर मुझे समझने की या सांत्वना देने का किसीने भी प्रयास नहीं किया"।बेटे की पीठ थपथपाते हुए प्रदीपजी बोले, "चलो एक नकली समस्या ने तुम्हारी आँखे खोल दी, कोई असली परिस्थिति होती तब क्या होता ? तुम तो मुसीबत में अकेले पड़जाते। दोस्ती बड़ी सोच बिचार के करनी चाहिए। अब ऐसा करो तुम गुप्ता अंकल के घर जाओ। वह मेरा सबसे अच्छा दोस्त है। उनके सामने अपनी समस्या को रखो और मदद मांगो। वह जैसे कहें वैसा करो, नहीं तो फिरसे घर वापस आ जाना"।
देव साइकल पर बोरे को लाद कर गुप्ता जी के पहुँच गया। उनसे हत्या की बात बतायी । गुप्ताजी बोले, "बेटा, ये तो बड़ा अनर्थ हो गया। कोई काम करने से पहले अच्छी तरह सोच लेना चाहिए। अब जो हो चुका उसको ठन्डे दिमाग मैं सोचते हैं । तुमने यहाँ आकर ठीक किया। तुम ने किसीको कुछ बताया तो नहीं ? तुम्हारे पापा को पता है कि नहीं ?" "अंकल, मैं सीधा यहाँ आ गया हूँ। पापा को बताने से डर लगा। किसीको कुछ बोलने का हिम्मत नहीं पड़ा। आप ही कुछ कीजिये।" कुछ देर सोचने के बाद गुप्ताजी बोले, " देव, बेटा तुम बोरा हमारे घर के पीछे रख दो और हमारे घर में बैठे रहो, कुछ खाओ पीओ। आंटी को कुछ मत बताना। हम तुम्हारे पापा से मिलकर कुछ न कुछ व्यवस्था करेंगे। जब तक हम वापस न आजाए, बाहर मत जाना। तुम्हारे चेहरे की घबराहट को देख कर कोई कुछ पूछ बैठा तो तुम कुछ का कुछ बोल दोगे। बात का बतंगड़ बनाने मैं लोग देरी नहीं लगेगी । तुम घबराना नहीं, तुमने जान बुझ कर सोच समझ कर कोई जुर्म नहीं किया है। यह तो एक हादसा भर है। हम इसका कोई न कोई समाधान करते हें। तुम्हे कोई मुसीबत या परेशानी में पड़ने नहीं दूंगा।जैसा जैसा मैंने कहा वैसा करना।" यह कह कर गुप्ताजी अपने मित्र प्रदीपजी से मिलने निकल गए। कुछ देर उपरांत दोनों मित्र देव से मिलने गुप्ताजी के घर पहुँच गए। प्रदीपजी देव से बोले, "बेटा तुमने मेरा एक दोस्त को तो देख लिया अब मेरा दूसरा दोस्त मिश्राजी के पास जाओ। उनको भी आजमाओ। इस उमर तक आते आते मैंने सिर्फ दो ही दोस्त कमाया है । बाकि जितने मिले सब परिचित थे, जिंदगी के रास्ते में मिले, परिचित बनकर रह गए। दोस्त कोई न बन पाया।" देव धान का बोरा लिए मिश्राजी घर चला गया। मिश्राजी को वही सब बातें बताए।मिश्राजी भी बड़ी आत्मीयता से देव को सांत्वना देकर बोरा को अपने घर पर छुपाकर उसको साथ लिए प्रदीपजी के घर निकल गए। वहां से दोनों गुप्ताजी के घर पर आये। प्रदीपजी बोले , " बेटा पूरी जिंदगी गुजर जाती है एक अच्छे इंसान से मिलने में। मगर तुम जैसे नौजवान अपनी कक्षा में पढ़ने वाले, अपने मोहल्ले मैं रहने वाले हर एक हमउम्र को दोस्त मानते हैं , और फिर धोखा खा जाते हैं । माता-पिता से बेहतर बच्चों का कोई मित्र हो नहीं सकता। उसके बाद अगर तुम्हारा जीवन भर कोई साथ निभाता है तो वह है तुम्हारी पुस्तक। वे ज्ञान देती हैं , जो कि रोशनी की तरह तुम्हें पथ प्रदर्षित करता है, सही और गलत से हमारा परिचय कराती है । " इतना कहकर प्रदीपजी चुप हुए।
देव बोला, " पापा मुझे अब और शर्मिंदा न करो। अब में और बचकाना हरकत नहीं करूँगा। मैं आपका आभारी हूँ, आपने मुझे जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण पाठ पढाया। जीवन भर यह मेरे काम आएगा। "
मगर सच तो यह है कि किसी अपने से मिलने में वर्षों लग जाते हें।
दिलों के फासले अब बढ़ने लगे हें ,
जब से हम तरक्की की राह में चलने लगे हें।
एक समय था जब हम किसी से कुछ काम रहने पर, या फिर कुछ मसले पर बातचीत करने हेतु मिलने जाते थे। कभी कभी पूरे परिबार को भी साथ लेकर जाते थे। घंटों बातचीत करते, अपने दुःख को बाँट कर घटाते, अपनी खुशियों को साझा करते थे। अपनी समस्याओं पर बिस्तार से चर्चा कर उससे बाहर निकालने का तरीका ढूंढ निकालते थे। चाय के प्याले के ऊपर ढेरों ज्ञान बांटे-बढ़ाये जाते थे। नजर और शरीर की भाब भंगिमा को देख एक दूसरे से रिश्ते मजबूत होते थे ।आँख से आँख मिलाकर झूठ भी तो बोला नहीं जाता। अतः इंसान एक दूसरे को अच्छी तरह जान पहचान लेता था। आमने सामने बैठने पर कौन अच्छा और कौन बुरा, क्या सही और क्या गलत ये साफ हो जाता था । आदमी ये सटीक तय कर लेता था कि कौन सी दोस्ती या संबंध को आगे बढ़ाया जाए या किस से दूर रहा जाए। भरोसे में धोखा जैसी चीज़ कम ही होती थी। सम्बन्ध बहुत कम होते थे मगर प्रगाढ़ होते थे। इस बिषय पर एक छोटी सी कहानी का जिक्र करना उचित होगा।
एक लड़का था। बिद्यालय से आने के उपरांत वह अपने दोस्तों के साथ घूमता रहता था। शाम को घर आकर फेसबुक और वाट्सएप पर ब्यस्त हो जाता था। पढाई के प्रति अबहेलना देख कर उसके पिता प्रदीपजी बोले "बेटा तुम ये जो मटर गस्ती कर रहे हो इस से तुम्हारा भबिष्य मुझे अच्छा नहीं दिख रहा है। हम नौकरी पेशा लोग, ढंग से पढ़ लिख लेंगे तो पेट पालने में आसानी होगी। नहीं तो दो वक्त की रोटी के लिए जिंदगी भर संघर्ष करते रह जाओगे। या तो तुम अभी थोड़ा मेहनत करो या फिर जिंदगी भर संघर्ष और मेहनत करना पड़ेगा। ये जो तुम्हारे दोस्त , जिनके साथ तुम दिन भर गुजारते हो सब एक एक करके अपने रास्ते चले जाएंगे। सब अपनी जिंदगी संभालेंगे, सवारेंगे। कभी जब मुलाकात होगी हाए-हेलो कर देंगे, एक प्याला चाय साझा कर लेंगे, या फिर एक वक्त खाना खिला देंगे। तुम्हारी समस्याओं को सुन कर 'आहा' बोल कर मोटा मोटा प्रवचन दे देंगे, और फिर अपने रास्ते चल पड़ेंगे। और अगर तुमने फिर से मिलने की कोशिश की तो तुम्हे देख कर अपना रास्ता बदल देंगे या फिर वक्त न होने का बहाना कर के तुम्हारे सामने से निकल जायेंगे । कोई तुम्हारे जिंदगी भर काम नहीं आने वाला है। फेसबुक पर बुजदिलों और धोखेबाजों का जमावड़ा है। जो लोग अपना नाम और चेहरे को तुमसे छुपाए फिरते हें वे तुम्हारे क्या किसी की भी दोस्ती के काबिल नहीं। तुम उनसे बातचित करने में वक्त गुजार देते हो। सोच कर बताओ तुम क्या ठीक और क्या गलत कर रहे हो।"
देव ध्यान पूवर्क सुनता रहा और फिर बोला, "पापा पढ़ाई के बारेमें जो आप ने कहा बिलकुल ठीक कहा। मुझे उसपर और ज्यादा ध्यान देना होगा। हमें इस प्रतियोगिता पूर्ण समाज में खुद को किसी काबिल बनाना पड़ेगा ताकि हम अपनी काबिलियत के बूते समाज में अपनी जगह हासिल कर सकें। मगर दोस्तों के बारेमें और फेसबुक के बारे में मैं आप से पूरी तरह सहमत नहीं हूँ। यहाँ मेरे जितने दोस्त है बड़े अच्छे लड़के हैँ , हम सब समान विचारधारा के हैँ। एक दूसरे को बड़ी होशियारी से देख परख कर हमने कदम आगे बढ़ाया है।आप किसी से भी बात कर सकते हें , किसी को भी आजमा सकते हें। वे सब विनम्र और समझदार है।जहाँ तक फेसबुक की बात है आप कुछ ठीक और कुछ गलत हैं । हम फेसबुक ज्ञान आहरण करने हेतु खोलते हैं । देश विदेश के लोगों से दोस्ती कर के पूरी दुनिया के लोगों का कल्चर, जीवन-यापन का ज्ञान सीधा लोगों से प्राप्त करने हेतु मैं फेसबुक का इस्तेमाल करता हूँ। बुरा न माने,आप भी तो फेसबुक का इस्तेमाल करते हैं। माफ़ कीजिये अगर ये कह कर मैंने आप को ठेस पहुँचाया तो।"
इतना कहकर जब देव चुप हो गया तो प्रदीपजी बोले, " बेटा मुझे नाज है की तुमने मेरी बात को ध्यान से सुना और उसपर अपने बिचार शालीनतापुवर्क व्यक्त किया । मैं तुम्हारी कोई बात का बिलकुल बुरा नहीं मानता। क्यों कि तुम उस उम्र में पहुँच चुके हो जहाँ मेरे हिसाब से हम पिता-पुत्र के अलावा अच्छे दोस्त की तरह अपने बिचारों को साझा कर सकते हें। जब हम अच्छे दोस्त है तो फिर तुम कोई भी आपत्ति को क्यों नहीं व्यक्त कर सकते हो? बेटा जहांतक मेरा फेसबुक इस्तेमाल की बात है तो मैं परिबार के प्रति, समाज के प्रति अपने कर्तब्यों का सुचारू ढंग से संपादन के उपरांत बचे हुए वक्त पर करता हूँ। जीबन के प्रति हर ब्यक्ति का एक नजरिया होता है , मेरा भी है। मेरे हिसाब से जिन चीजों की समाज में कमी है और मुझे लगता है की मुझे उसपर रोशनी डालनी चाहिए में उसपर फेसबुक, वॉटसअप और ट्विटर पर लिखता हूँ। जिसे मेरे बात पर यकीन नहीं होता, या मेरे खुलेपन और सब को अपना समझना और बर्ताब करना पसंद नहीं आता, या जो दुनिया भर को शक की नजर से देखते हैं वे मुझसे दूर चले जाते हैं। जो लोग मेरे हिसाब से समाज मैं भेद भाव,नफरत का जहर,या वासना की गंदगी फैलाते हैं उनसे मैं दूर हो जाता हूँ। ऐसा करते हुए एक वक्त ऐसा भी आएगा जब मेरे पास ऊँगली पर गिने जाने योग्य कुछ दोस्त फेसबुक पर होंगे। जिनके जीबन और बिचार पर मुझे नाज होगा। क्यों कि मैं एक परिपक्व इंसान हूँ तो मैं किसी की मीठी बोली मैं आने वाला नहीं हूँ। फेस बुक और व्हाट्सप्प पर अपने विचारों को साझा करता हूँ। यक़ीनन अबतक मुझे वहां कोई दोस्त कहलाने योग्य नहीं मिला है। हाँ यहाँ शहर मैं सिर्फ दो लोग हैं जिनकी दोस्ती पर मेरा भरोसा है, और उनके व्यक्तित्व पर मुझे नाज है। अब तुम बताओ तुम्हारे कितने अच्छे दोस्त है श.हर मैं ?"
" ४८ साल के जिंदगी मैं बस दो ही दोस्त? आप को सिर्फ दो ही ऐसे इंसान मिले जिनकी सोच और विचार आप से मेल खता हो ? आप तो हर रोज काम के सिलसिले मैं कई लोगों से मिलते रहते हो, फिर इतने कम दोस्त क्यों ? हमारे यहीं बिलासपुर मैं ढेरों दोस्त है , कुछ स्कूल की वक्त के दोस्त , कुछ कालेज के , कुछ पुराने मोहल्ले के जहाँ हम पहले रहते थे और फिर कुछ अभी की कालोनी के। क्या गिनती बताऊँ उनकी हम रोज मिलते रहते हैं ।" मुस्कुराके प्रदीपजी बोले, " बड़ा अच्छा लगा ये सुन के की तुम्हारे ढेरों दोस्त है। तुम काफी होशिआर लड़के हो। बड़ी होशियारी से दोस्त चुने होंगे। मगर बेटा मैं जानना चाहता हूँ की कौन तुम्हारे सबसे अच्छा दोस्त है। उसके लिए एक परिक्षा करना चाहता हूँ। क्या तुम साथ देने को तैयार हो ?" तारीफ के सभी काहिल होते हैं। पापा की तारीफ सुन कर देव बोला, " हाँ पापा मेरे सारे दोस्त अच्छे हैं और उकी दोस्ती पर मुझे नाज है। आप किसी का भी परिक्षा ले सकते हो। "
प्रदीपजी धान की एक बड़ी बोरी निकाले और फिर उसे एक इंसान आकर देकर बांध दिए। ऊपर से कुछ लाल रंग लगा कर उसे और एक बोरी मैं डाल दिए। देव से बोले "यह बोरी को साईकल के पीछे रखो और तुम जिसे अपना सबसे अजीज दोस्त मानते हो उसके पास जाओ। उसे कहना कि तुम्हारे हाथ से एक क़त्ल हो गया है। वह तुम्हे बचाले,और तुम्हे कुछ पैसे की सख्त जरुरत है। तुम्हे क्या जबाब मिला मुझे आ कर बताओ।" देव धान के बोरा को साइकिल पर लाद कर निकल पड़ा अपने सबसे अजीज बचपन के दोस्त हरीश के पास। रोनी सूरत करते हुए बोला, " हरीश, मेरे भाई, मुझसे एक बड़ा अनर्थ हो गया है। एक अनजान शख़्स से में उलझ गया और फिर तैश मैं आकर मेरे हाथों उसका क़त्ल हो गया है। अब तुम मेरी कुछ मदद करो, चलो इस लाश को कहीं छुपा देते हें। और फिर मुझे जितना तुमसे बन पड़े कुछ पैसा उधार दो। मामला ठंडा होने के बाद तुम्हे सारा पैसा लौटा दूंगा।" इतना कह कर देव अपने हाथों से अपने चेहरे को ढँक कर रोने लगा और फिर अपने अजीज दोस्त हरीश के जवाब की प्रतिक्षा करने लगा। बहुत सोचने के उपरांत हरीश बोला, " देव, तुम तो जानते हो मेरे पिताजी कितने गुस्से वाले हैँ । उन्हें पता चलेगा मैंने इन हालातों में तुम्हारा साथ दिया है, तो वे मुझे बहुत मारेंगे। तुमको आगे पीछे सोचना चाहिए था, कुछ करने से पहले। ये तो हत्या का मामला है। आज नहीं तो कल उजागर हो जाएगा। पुलिस का डंडा तुम तो खाओगे ही और फिर तुम्हे साथ देने के लिए मुझे भी जेल जाना पड़ेगा। मैं इस जुर्म में तुम्हारे साथ नहीं हूँ यार। जहाँ तक पैसे का सवाल मेरे पास कुछ भी नहीं है। तुम कहीं और देखो। " इतना सुन कर देव बोला, "तुम मेरे सबसे पुराने और सबसे अजीज दोस्त हो। इस बुरे वक्त में मैं अगर तुमसे मदद की उम्मीद न रखूं तो फिर तुम कहो किस के पास जाऊं? जुर्म कहाँ जान बुझ कर किया हूँ ? तुम्हारे पास तो हर वक्त पैसा रहता है। आज मेरे इस संकट की घडी में कुछ नहीं है यह कैसे होसकता है ? कम से कम हमारी दोस्ती का कुछ तो लिहाज करो।" फिर बडी दीनता से हरीश के जवाब का इन्तजार करने लगा। हरीश उसकी दयनीयता का जबाब बड़ी कठोरता से दिया , " अब तुम कहाँ किसी के दोस्त रहे। तुम अब एक हत्यारे हो। हाँ , मेरे पास पैसा है लेकिन तुम्हारी मदद करने का मतलब अपराध में शरीक होने के बराबर माना जा सकता है।हमारी दोस्ती के दिनों को याद करके मैं तुम्हे पुलिस के हवाले नहीं करता हूँ। मैं जनता हूँ अपराध या अपराधी को छुपाना भी एक जुर्म है। मगर इतने साल की दोस्ती के खातिर मैं यह जुर्म करने को तैयार हूँ। लेकिन तुहे एक वादा करना पड़ेगा। तुम कहीं भी, किसी को भी नहीं बताओगे की तुम यहाँ आए थे, और मुझे सब कुछ बताए थे। नहीं तो में अभी थाने में जाकर तुम्हारी करतूत का पर्दाफाश करता हूँ।" अपने अजीज दोस्त का जवाब सुन कर देव दंग रह गया और फिर हाथ जोड़ कर बोला, " में यहाँ फिर कभी नहीं आऊंगा। यहाँ आया था यह भी किसीको बताऊंगा नहीं। तुम प्लीज़ पुलिस की बात मत करो, मुझे बहुत डर लग रहा है।" इसके उपरांत देव अपने एक और दोस्त के पास पहुँच गया। एक के बाद एक उसके सारे दोस्त जब उसे खरी खोटी सुना कर उससे किनारे हो गए, तो थक हारकर देव अपने घर वापस आ गया।
प्रदीपजी पूछे , "बेटा, क्या हुआ ? कितने दोस्त तुम्हारे साथ देने को तैयार हुए ? उन्होंने तुम्हे क्या सलाह दिया ? तुम्हारा चेहरा क्यों लटका हुआ है ? कुछ किसीने बुरा भला कहा क्या ?" सवालों के बौछार के जबाब मैं देव अपना सर झुकाके बोला, " में कितना गलत था पापा, आज पता चला। मैंने आज तक एक भी सच्चा दोस्त नहीं कमाया है। जितने से आजतक मिलता था वे सब सिर्फ जान पहचान के थे । बल्कि यह कहा जा सकता है की में उन्हें पहचानता भी नहीं था। अब सब साफ हो गया है। उन में से कोई एक भी सच्चा दोस्त कहलाने के योग्य नहीं है। मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ अपनी पसंद पर।वे सरे लोग जिन्हे हम अपना दोस्त कहते थे, मुझे अपनी पीठ दिखादिया। मुसीबत की समय कोई साथ देना तो दूर मुझे समझने की या सांत्वना देने का किसीने भी प्रयास नहीं किया"।बेटे की पीठ थपथपाते हुए प्रदीपजी बोले, "चलो एक नकली समस्या ने तुम्हारी आँखे खोल दी, कोई असली परिस्थिति होती तब क्या होता ? तुम तो मुसीबत में अकेले पड़जाते। दोस्ती बड़ी सोच बिचार के करनी चाहिए। अब ऐसा करो तुम गुप्ता अंकल के घर जाओ। वह मेरा सबसे अच्छा दोस्त है। उनके सामने अपनी समस्या को रखो और मदद मांगो। वह जैसे कहें वैसा करो, नहीं तो फिरसे घर वापस आ जाना"।
देव साइकल पर बोरे को लाद कर गुप्ता जी के पहुँच गया। उनसे हत्या की बात बतायी । गुप्ताजी बोले, "बेटा, ये तो बड़ा अनर्थ हो गया। कोई काम करने से पहले अच्छी तरह सोच लेना चाहिए। अब जो हो चुका उसको ठन्डे दिमाग मैं सोचते हैं । तुमने यहाँ आकर ठीक किया। तुम ने किसीको कुछ बताया तो नहीं ? तुम्हारे पापा को पता है कि नहीं ?" "अंकल, मैं सीधा यहाँ आ गया हूँ। पापा को बताने से डर लगा। किसीको कुछ बोलने का हिम्मत नहीं पड़ा। आप ही कुछ कीजिये।" कुछ देर सोचने के बाद गुप्ताजी बोले, " देव, बेटा तुम बोरा हमारे घर के पीछे रख दो और हमारे घर में बैठे रहो, कुछ खाओ पीओ। आंटी को कुछ मत बताना। हम तुम्हारे पापा से मिलकर कुछ न कुछ व्यवस्था करेंगे। जब तक हम वापस न आजाए, बाहर मत जाना। तुम्हारे चेहरे की घबराहट को देख कर कोई कुछ पूछ बैठा तो तुम कुछ का कुछ बोल दोगे। बात का बतंगड़ बनाने मैं लोग देरी नहीं लगेगी । तुम घबराना नहीं, तुमने जान बुझ कर सोच समझ कर कोई जुर्म नहीं किया है। यह तो एक हादसा भर है। हम इसका कोई न कोई समाधान करते हें। तुम्हे कोई मुसीबत या परेशानी में पड़ने नहीं दूंगा।जैसा जैसा मैंने कहा वैसा करना।" यह कह कर गुप्ताजी अपने मित्र प्रदीपजी से मिलने निकल गए। कुछ देर उपरांत दोनों मित्र देव से मिलने गुप्ताजी के घर पहुँच गए। प्रदीपजी देव से बोले, "बेटा तुमने मेरा एक दोस्त को तो देख लिया अब मेरा दूसरा दोस्त मिश्राजी के पास जाओ। उनको भी आजमाओ। इस उमर तक आते आते मैंने सिर्फ दो ही दोस्त कमाया है । बाकि जितने मिले सब परिचित थे, जिंदगी के रास्ते में मिले, परिचित बनकर रह गए। दोस्त कोई न बन पाया।" देव धान का बोरा लिए मिश्राजी घर चला गया। मिश्राजी को वही सब बातें बताए।मिश्राजी भी बड़ी आत्मीयता से देव को सांत्वना देकर बोरा को अपने घर पर छुपाकर उसको साथ लिए प्रदीपजी के घर निकल गए। वहां से दोनों गुप्ताजी के घर पर आये। प्रदीपजी बोले , " बेटा पूरी जिंदगी गुजर जाती है एक अच्छे इंसान से मिलने में। मगर तुम जैसे नौजवान अपनी कक्षा में पढ़ने वाले, अपने मोहल्ले मैं रहने वाले हर एक हमउम्र को दोस्त मानते हैं , और फिर धोखा खा जाते हैं । माता-पिता से बेहतर बच्चों का कोई मित्र हो नहीं सकता। उसके बाद अगर तुम्हारा जीवन भर कोई साथ निभाता है तो वह है तुम्हारी पुस्तक। वे ज्ञान देती हैं , जो कि रोशनी की तरह तुम्हें पथ प्रदर्षित करता है, सही और गलत से हमारा परिचय कराती है । " इतना कहकर प्रदीपजी चुप हुए।
The concept friendship is well composed,the fictional story is a perfect match to define the exact terms,friends may be countless but true friendship are on finger tips.Good Write.
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