कृष्ण भावनामृत की पावन गंगा में वहता,
मैं एक नगन्य प्रदीप हूं टिमटिमाता।
सीमित बुद्धि की बाती लगाए चल रहा हूं,
अदृढ भक्ति का अशुद्ध घी डाले जल रहा हूं।
संसार कर्म की हवा मेरी लौ को बुझाने में है प्रयासरत,
अपने धीरज की ओट मैं उसे दिए जा रहा हूं अनवरत।
मोह मेरी सोच पर अपनी बुंदाबांदी की लगाता जा रहा है धात,
मैं अपनी श्रद्धा की छतरी पकडे जलने में हूं संघर्षरत।
देर से निकला हूं, आशंकित हूं क्या मैं तेरे
चरणसागर तक पहूंच पाउँगा,
या फिर परिस्थिति से थक हार कर बुझ जाउँगा।
बस इतनी विनती मैं करता हूं कान्हा तुझ को,
कि बुझ जाने से पहले तुम डूबो देना मुझ को।
Beautiful.
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