दुनियावी बातों से अब मेरा मासूम ह्रदय दुखता नहीं,
तेरे सोच की पावन आल्हाद जो इसपर है छाई हुई।
दर्द नहीं है कोई, आत्मा पर लगा है तेरी प्रीत का मलहम,
डर, क्रोध, झूठ, कपट से खाली है तो अब है अदभुत मुलायम।
देह क़े खोल को त्यागने को आत्मा है तैयार , निडर, उच्छन्न,
अनुशासनहीन मन अब धीरे धीरे बिसर रहा है सारे अवगुण।
सत्य , शुचि, तप, दया के वह सारे कठिन आचरण,
अब आनंद देने लगे हैं तेरी अमित कृपा के कारण।
छाया को सत्य, माया को नित्य मानने का अब नहीं है बोध,
अब तक जो हुआ अज्ञान जान कर करदो क्षमा मेरे अपराध।
लोग, उनकी पार्थिव अवधारणाएँ, उनके सच, झूठ,
हृदय से लगाकर अब हम नहीं जाते हैं रूठ।
शत्रु कोई नहीं है मेरा, तुम एक ही हो मेरे परम मीत,
आत्मा में शत्रुता या मित्रता हो नहीं सकती संलिप्त।
पार्थिव प्राप्ति की मृगमद का मैं करता रहा आजीवन पीछा,
अब तेरे नाम की गंगा में अवगाहन की कर रहा हूँ इच्छा।
देहबोध, देहाभिमान अब भी बचा तो है, मगर थोड़ा,
मिटेगा एक दिन मैं ज्यूँ ज्यूँ तुझ से जाऊंगा जोडा ।
बस इतनी कृपा करदो कान्हा , कि मुझे अपनालो अविलंब,
तू ही तो है दास प्रदीप्त की आत्मा का एक ही अवलम्ब।
तेरे सोच की पावन आल्हाद जो इसपर है छाई हुई।
दर्द नहीं है कोई, आत्मा पर लगा है तेरी प्रीत का मलहम,
डर, क्रोध, झूठ, कपट से खाली है तो अब है अदभुत मुलायम।
देह क़े खोल को त्यागने को आत्मा है तैयार , निडर, उच्छन्न,
अनुशासनहीन मन अब धीरे धीरे बिसर रहा है सारे अवगुण।
सत्य , शुचि, तप, दया के वह सारे कठिन आचरण,
अब आनंद देने लगे हैं तेरी अमित कृपा के कारण।
छाया को सत्य, माया को नित्य मानने का अब नहीं है बोध,
अब तक जो हुआ अज्ञान जान कर करदो क्षमा मेरे अपराध।
लोग, उनकी पार्थिव अवधारणाएँ, उनके सच, झूठ,
हृदय से लगाकर अब हम नहीं जाते हैं रूठ।
शत्रु कोई नहीं है मेरा, तुम एक ही हो मेरे परम मीत,
आत्मा में शत्रुता या मित्रता हो नहीं सकती संलिप्त।
पार्थिव प्राप्ति की मृगमद का मैं करता रहा आजीवन पीछा,
अब तेरे नाम की गंगा में अवगाहन की कर रहा हूँ इच्छा।
देहबोध, देहाभिमान अब भी बचा तो है, मगर थोड़ा,
मिटेगा एक दिन मैं ज्यूँ ज्यूँ तुझ से जाऊंगा जोडा ।
बस इतनी कृपा करदो कान्हा , कि मुझे अपनालो अविलंब,
तू ही तो है दास प्रदीप्त की आत्मा का एक ही अवलम्ब।