एक राधा को पागल कर, तेरी आत्मा न मानी
जो तुम आ गए, मेरे मन में करने मनमानी।
एक मीरा को जहर देकर, तुम न हुए संतुष्ट
जो तुमने मुझे भी पिला दिए श्रद्धा के कड़वे घूंट।
पर हे गोविंद, तेरे बनने का न है कोई सानी
झेल सकता हूँ सहर्ष, मैं तेरा बन कर सारी परेशानी।
वह पागलपन में भी था, एक अद्भुत-सी सुगंध,
उस जहर में भी था, एक अनंत, अकल्पनीय आनंद।
तुम बस एक बार, मुझे स्वीकार तो लो
अपने विशाल हृदय में, उतार तो लो।
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