वो आए मेरे घर नटखट श्यामसुंदर,
पावन जन्माष्टमी पर अतिथि देव बन कर।
दरस को तरस रहा था प्यासी मन,
अब आए हें तो है उद्विग्न परेशान ।
क्या दूं , क्या न दूं मन में है बहुतेरे द्विधा,
कैसे करूं अर्चना शंकित है मेरी मेधा।
सब उसका, जल, थल, ये विशाल आकाश,
जन, धन, जीवन, मरण दृश्य तथा अदृश्य।
सब जिसका, उसका उसे सौंपू तो कैसे ?
पराया धन अतिथि को अर्पण करूँ तो कैसे ?
लो अगर मानलो बस यही है मेरा अपना,
दो बूंद आँसू , थोड़ा प्रीति की मधुर भावना।
पूजन, अर्च, भकती रीत न जानूँ कान्हा,
मूढ़, अकिंचन, बेचारा जान छमा कर देना।
पावन जन्माष्टमी पर अतिथि देव बन कर।
दरस को तरस रहा था प्यासी मन,
अब आए हें तो है उद्विग्न परेशान ।
क्या दूं , क्या न दूं मन में है बहुतेरे द्विधा,
सब उसका, जल, थल, ये विशाल आकाश,
जन, धन, जीवन, मरण दृश्य तथा अदृश्य।
सब जिसका, उसका उसे सौंपू तो कैसे ?
पराया धन अतिथि को अर्पण करूँ तो कैसे ?
लो अगर मानलो बस यही है मेरा अपना,
दो बूंद आँसू , थोड़ा प्रीति की मधुर भावना।
पूजन, अर्च, भकती रीत न जानूँ कान्हा,
मूढ़, अकिंचन, बेचारा जान छमा कर देना।
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