दुःख असीम, छूट सीमित;
दंड है यह भव कारा।
आनंद अमित,पीड़ा शून्य,
विभु भाव का गलियारा।
चाह प्रभुकी सदा यह रहीं हैं
कि आत्माएं न भोगें कारागार ,
पर आत्माएं भोगते वही,
जो करते हैं कर्म जिस प्रकार।
कर्म से प्रारब्ध की निर्माण,
प्रारब्ध से नियंत्रित है जीवन,
जीवन मैं सुख या दुःख का आगम,
प्राणीओं कर्मों के ही है उपार्जन।
कर्म पर है हर प्राणी की,
जन्मजात जीवनाधिकार,
अधिकार का उपयोग या दुरुपयोग ,
तय करता है भव की फेर ।
तब मुक्ति कारा से जब दैवी कर्म हो शुद्ध,
जब निस्वार्थता, सत्यप्रियता, सत्य ,
देव आस्था,श्रद्धा, अंगीकार, समर्पण,
शुचि, दया, तप हो आत्मा की पथ।
कोई भी देश की सरकार यह कभी नहीं चाहती है की उसके नागरिक कारागार में रहे, लेकिन जब किसी व्याक्ति के कर्म समाज में रहने योग्य न हो सरकार बाध्यता वस व्यक्ति को कारागार में डाल देता है। ठीक उसी प्रकार, प्रभु यह चाहते हें की आत्माएं मुक्त रहें, परमधाम में रहें।पर जब कोई आत्मा का आचरण देवत्व के योग्य (सत्य और सदाचार ) नहीं होता है भगवान उसे अपने पास नित्य बैकुण्ठ में नहीं रखते। कर्म के हिसाव से विभिन्न जीवयोनिओं में भव कारागार में दंड पाने और खुदको सुधारने भेज देते हैं। जहाँ दुःख(दैहिक, भौतिक, दैविक ), व्याधि(शारीरिक , मानसिक ), बुढ़ापा(पीड़ा, असहायता, अपंगता ) सुखों की किंचित छाओं के मध्य आत्मा को भोगना होता है। आत्मा तब तक उस फेर (complications) में पड़ा रहता है जब तक वह खुदको सच्चिदानंद के योग्य (दिव्य ) नहीं वना लेता है।
दंड है यह भव कारा।
आनंद अमित,पीड़ा शून्य,
विभु भाव का गलियारा।
चाह प्रभुकी सदा यह रहीं हैं
कि आत्माएं न भोगें कारागार ,
पर आत्माएं भोगते वही,
जो करते हैं कर्म जिस प्रकार।
कर्म से प्रारब्ध की निर्माण,
प्रारब्ध से नियंत्रित है जीवन,
जीवन मैं सुख या दुःख का आगम,
प्राणीओं कर्मों के ही है उपार्जन।
कर्म पर है हर प्राणी की,
जन्मजात जीवनाधिकार,
अधिकार का उपयोग या दुरुपयोग ,
तय करता है भव की फेर ।
तब मुक्ति कारा से जब दैवी कर्म हो शुद्ध,
जब निस्वार्थता, सत्यप्रियता, सत्य ,
देव आस्था,श्रद्धा, अंगीकार, समर्पण,
शुचि, दया, तप हो आत्मा की पथ।
कोई भी देश की सरकार यह कभी नहीं चाहती है की उसके नागरिक कारागार में रहे, लेकिन जब किसी व्याक्ति के कर्म समाज में रहने योग्य न हो सरकार बाध्यता वस व्यक्ति को कारागार में डाल देता है। ठीक उसी प्रकार, प्रभु यह चाहते हें की आत्माएं मुक्त रहें, परमधाम में रहें।पर जब कोई आत्मा का आचरण देवत्व के योग्य (सत्य और सदाचार ) नहीं होता है भगवान उसे अपने पास नित्य बैकुण्ठ में नहीं रखते। कर्म के हिसाव से विभिन्न जीवयोनिओं में भव कारागार में दंड पाने और खुदको सुधारने भेज देते हैं। जहाँ दुःख(दैहिक, भौतिक, दैविक ), व्याधि(शारीरिक , मानसिक ), बुढ़ापा(पीड़ा, असहायता, अपंगता ) सुखों की किंचित छाओं के मध्य आत्मा को भोगना होता है। आत्मा तब तक उस फेर (complications) में पड़ा रहता है जब तक वह खुदको सच्चिदानंद के योग्य (दिव्य ) नहीं वना लेता है।
(यह श्रीमद भागवत के तत्व पर आधारित )
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