Sunday 6 January 2019

अथः पागल उबाच

एक डाल से दूसरी डाल,
उड़ता पंछी प्रकार,
एक देह से दूसरे देह का,
आत्मा करती  सफ़र।

बद्ध बुद्धि से सोचती आत्मा,
सबकुछ है यह शरीर,
भ्रम में पड़कर करती रहती,
मात्र देह की फ़िकर।

संसार कर्मों को, तद्भव सुखों को,
चलती लख्य बनाकर,
घबरा जाता चलते चलते,
अंत समय देखकर।

आत्मस्थ होकर आसरा ढूंढ़ता,
मंदिर, मस्ज़िद, गुरुद्वार,
भय में आकर सर झुकाती,
हर भ्रमात्मक ठौर।

ज्ञानांध मानव दम तोड़ता,
अंधकार पथ पर,
भटकी हुई आत्मा सुरु करती,
एक और अंधी सफ़र।

जब तक प्राणी नहीं चलता ,
दिव्यज्ञान के पथ पर,
पुनरपि जनमं, पुनरपि मरनं,
होता भव भूमि पर।

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