Sunday 4 March 2018

रंग रसिया १



रंग रसिया १ 
हे अलौकिक प्रेम मूर्ति  श्रीराधारानी,
हमारी  अनन्य सास्वत हृदय संगिनी।  
भ्रम कैसे हुआ  कि हम है आप से दूर, 
अवश्य है यह आप पर माया का  असर। 
दुग्ध में धवलता, रवि में उजाला, मुझ में आप,
प्रकृति का है यह अकाट्य,अपरिवर्तनीय मिलाप।  

मथुरा गमन क्षणभर की  है शारीरिक दूरी,    
संसार कर्म, जीवन दायित्व की थी मज़बूरी।  
न कर सकते थे हम दायित्वों को अस्वीकार,
तब ही  तो हम आए हैं  मथुरा नगर।  
तुम ये तो न चाहोगे कि हमें अकर्मा कहे संसार,
ये भी न चाहोगे कि संसार से कम न हो पाप का भार।  
महत्ता से बढ़ जाती है व्यक्ति की दायित्व  और,
और फिर मैं तो कृष्ण हूँ, जगत का पालनहार। 


नहीं  हो सकते हैं  हम आप से पृथक,
ओ साथी मेरे सॄष्टि के आदि से अंत तक।  
आप  हो मेरे जीवन, साथीप्रीतिमर्म,
मेरे रंग, रस, रास, कर्म, धर्म।      
हमारे  जाग्रत में आप हो चेतन में सतत, 
निद्रा में आप  हो  स्वप्न रूप में प्रकट।  
आप के रंग से ही  तो है मेरे मन  का  उजाला,
आप  लिए ही तो हूँ मैं मोहन मुरलीवाला।  
जैसे कृष्ण मय है बृन्द का कण कण,
वैसे राधा मय है मेरी चितवन  हर  क्षण।  

भूमिका: होली के पावन अवसर पर श्रीकृष्णजी  के मथुरा प्रवास में श्रीराधाजी की बिरह व्यथा को सुनकर श्रीकृष्णजी का श्रीराधाजी को सांत्वना।

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