Sunday 6 May 2018

आख़िर कब तक

हंसी  मज़ाक शायद थी  तुम्हारी  आदत,
तभी तो  तुम मुस्कुराके चल दिए ,
पर हम दोस्ती को संजीदगी से निभाते,
महफ़िल में  मज़ाक बन कर रह गए।

आज जब हमें अपने आंसुओं के सैलाब  में,
तुम्हारी  डूबती तैरती सूरत नज़र आती है ,
एक आह रुह की गहराईओं से निकलकर,
उन  मौजों की रवानी  में कहीं खो जाती है ।

आनेवाले  वक्त के  अंतहीन  क्षितीज  में,
जहाँ तक मैं कुछ रौशनी की तलाश करता हूँ,
सिवाय मायूसी के  बियाबान अँधेरे के,
धोकेसे भी   कुछ नज़र नहीं  आता है।

तुम कहो, कब तक तुम्हारा चाहनेवाला
यूँ  चल पाएगा  सांसों को हलक में थाम कर,
आख़िर कब तक तेरे लिए गाता जाएगा,
उंगलिओं से रुंधी सी आवाज़ को सहेज़ कर ?       


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