Wednesday 27 September 2017

स्वच्छंद प्रेमाश्रु

गरज से अरज करने नहीं आए हें तेरे मंदिर  हम,
 मन पडा तो बैठ गए तेरी चौखट पर दो दम। 

तेरे बगैर हम कुछ भी नहीं, जब यह सोच मन को आ गयी,
पिघल कर सारा दंभ दो नदी बन कर आँखों से  बह गयी। 

इन आँसुओं को दर्द का बहाव न समझ लेना कहीं,
स्वच्छंद  प्रेमाश्रु  हें ये मेरा इन पर कोई जोर नहीं। 

दर्द में दम कहां था  जो तेरे चरऩाश्रित को रूला दें,
कोई दुःख समर्थ कहां था जो तेरे शरणागत को छुं भी लें। 

संसार में जीवन, है तो नहीं कोई सपाट सफर,
जो मैं रो पडूं किसी असमतल राह से डर कर। 

 यह कोई गुलाव की सेज भी नहीं जो मैं करूं इसकी आस,
 कांटे से घायल हो कर  शिकायत करूं तेरे पास। 

तुम अंतर्यामी हो मेरी हर जरूरत को जान लेते हो,
बिन मांगे मन की हर मुराद को तुम मान लेते हो। 

क्या देता मैं तुझको,सब है तेरा, बस यही है मेरा, इसे करो स्वीकार,
सागर से गहरे, सूरज से तेज,आसमान से उँचे है ये मेरे नयन नीर। 

2 comments:

  1. Very nice poem....& Especially the Poet is a person to be met and to be experienced.

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  2. बहुत ही सुन्दर

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